लेखनी कहानी -06-Oct-2022
भाग : 1
दृश्य : 1
(सत्संग स्थल पर एक आचार्य अपने शिष्यों को ज्ञानोपदेश देते हैं। उनके सामने कई शिष्य सत्संग सुनते हैं। इनमें दीपक और आशीष उपस्थित हैं।)
गुरुजी (शिष्यों से) -’’पोथी पढ़ि-पढ़ि जग भया पण्डित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।’’ पुण्यात्माओं! इस जगत में प्राप्त किए समस्त ज्ञान तव तक व्यर्थ हैं जब तक हृदय में मानवीय प्रेम का ज्ञान नहीं।
दीपक (गुरुजी से) - यह सत्य है गुरुदेव ! किन्तु फिर भी लोग जाति-धर्म, ऊँच-नीच और बड़े-छोटे की भावना से ग्रस्त क्यों हैं?
गुरुजी - धनवान-निर्धन, ऊँचा-नीचा, छोटा-बड़ा, सवर्ण-हरिजन की भावनाओं से ग्रस्त लोगों को समझाना चाहिए कि ’’जाति-पाति पूछै नहीं कोई हरि को भजै सो हरि का होई।’’ जिस हृदय में सबके लिए प्रेम है। वहाँ साक्षात हरि का बास है। वही व्यक्ति परमात्मा को पाने का अधिकारी है।’’
आशीष (गुरुजी से) - किन्तु गुरुदेव ! समाज में हरिजन सदा ही तिरस्कृत और अपमानित रहा है। क्या हरिजन को समाज में विद्रोह करना चाहिए?
गुरुजी - कदापि नहीं वत्स ! स्मरण रखो ’’हरिजन तो हारा भला जीतन दे संसार, हारा तो हरि से मिला जीता यम की लार।’’
आशीष (गुरुजी से) - हरिजन तो हारा भला ! तो क्या इस अन्यायी समाज के प्रति विद्रोह करना पाप है गुरुदेव?
गुरुजी - पुत्र ! हरिजन को विद्रोह से नहीं विनम्रता से समाज को बदलना चाहिए। हरिजन इतने गुणवान वनें कि समाज और मानवता के उत्थान में बढ़-चढ़कर योगदान दें। वे समाज का आधार वनें, समाज को शक्ति दें और फिर आप स्वयं देखेंगे कि समाज उनसे सीखने लगेगा और एक दिन समाज उन्हें अपना आदर्श वना लेगा।
दीपक (गुरुजी से) - और जब आदर्श बना लेगा तो अपार सम्मान भी देगा, है ना गुरुदेव !
गुरु जी - निःसन्देह पुत्र! आज का सत्संग यहीं समाप्त होता है।
(सभी उठ जाते हैं।)
(गुरुजी व अन्य शिष्यों का प्रस्थान)
(दीपक व आशीष वहीं रुकते हैं। दीपक आशीष की हथेलियाँ थामता है।)
दीपक (आशीष से) - मित्र आज के सत्संग में आनन्द आ गया।
आशीष (प्रशन्नता से) - हाँ मित्र !
दीपक - लेकिन मित्र ! तुमसे एक बात पूछूँ?
आशीष - हाँ अवश्य।
दीपक - मित्र मैं सवर्ण जाति का ब्राह्राण हूँ किन्तु तुम्हारा परम मित्र भी, कहीं मेरे प्रति भी तुम्हारा विद्रोह!
आशीष - नहीं नहीं मित्र ! तुम मुझे लज्जित कर रहे हो। तुमने सदैव विपरीत परिस्थितियों में मेरा साथ दिया है। मैं तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम मेरे सवसे आत्मीय सखा हो।
दीपक - और तुम मेरे सबसे प्रिय भाई।
(प्रेम के साथ दोनो गले मिलते हैं।)
दीपक(आगे) - आज का भोजन मेरे साथ करोगे मेरे घर पर।
आशीष - लेकिन!
दीपक - लेकिन-बेकिन कुछ नहीं तुम चल रहे हो मतलब चल रहे हो।
आशीष (मुस्कुराते हुए) - ठीक है जिद्दी!
(दृश्य परिवर्तन)
दृश्य: 2
(दीपक का घर है। भूमि पर चटाई बिछी है। चटाई से कुछ ही दूरी पर भोजन रखा है। दीपक की वहन आस्था थोड़ी दूरी पर कुर्सी पर बैठी किताव पढ़ती है तथा दीपक की माँ शकुन्तला माला बुनती है।)
(दीपक व आशीष का दृश्य में प्रवेश)
दीपक(आशीष से) - आओ मित्र !
दीपक( भोजन की सुगन्ध लेते हुए) - ’’वाह! क्या सुगन्ध है! आज माँ ने हमारे लिए कुछ बहुत ही स्वादिप्ट पकाया है।
(दोनों चटाई की ओर बढ़ते हैं।)
दीपक(आशीष से) - आओ बैठो मित्र !
(दोनों चटाई पर बैठते हैं।)
दीपक (आस्था से) - आस्था ! देख तो सही मेरे साथ आशीष भाई आए हैं। हम लोगो को भोजन परोस दे।
(आस्था कुर्सी से उठती है।)
आस्था - मुझे बहुत काम है। मां से परोसवा लो।
(आस्था का मुँह घुमाकर प्रस्थान)
दीपक (आशीष से) - मित्र दरअसल आस्था पर इन दिनों पढ़ाई का बहुत दबाव रहता है। इसलिए उसका व्यवहार!
आशीष - काई बात नहीं मित्र !
दीपक (माँ से) - माँ क्या आप हमारे लिए भोजन परोस देंगी?
माँ - क्यूँ? तेरे हाथ नहीं हैं क्या?
(माँ का नाराज होकर प्रस्थान)
दीपक ( आशीष से) - कोई बात नहीं मित्र ! मैं हूँ ना! आज मैं तुम्हें अपने हाथ से भोजन परोसूँगा।
आशीष - मैं तुम्हारी मदद करुँगा मित्र!
दीपक - नहीं मित्र ! मैं कर लूँगा।
(दीपक भोजन परोसता है।)
दीपक ( आशीष से) - शुरु करो मित्र!
(दोनों भोजन करते हैं। भोजन करते समय ही दीपक के पिता रमाशंकर का प्रवेश होता है।)
रमाशंकर (शकुन्तला को पुकारते हुए) - अरी आस्था की माँ ! मुझे कथा के लिए जाना है। कुछ जलपान की व्यवस्था कर दो।
रमाशंकर क्रोध से दीपक व आशीष को देखते हैं।
दीपक (रमाशंकर से) - पिता जी ! माँ आती ही होगी। कृपया हमारे साथ भोजन ग्रहण करें।
रमाशंकर (धोती छिटकर) - हूँह! भोजन!
(रमाशंकर का प्रस्थान)
आशीष (दीपक से) - मित्र क्या बात है? आपके घर में किसी का मूड अच्छा नहीं है।
दीपक - कुछ नहीं मित्र तुम भोजन करो मूड का क्या है कभी सही होता है तो कभी खराब।
आशीष - लेकिन मित्र कहीं इसका कारण मैं तो नहीं।
दीपक - नहीं भाई ! तुम अनावश्यक चिन्ता मत करो। छयान है ना हमें आज कविता प्रतियोगिता में जाना है।
आशीष - अरे हाँ आज की प्रतियोगिता में कई नामचीन कवि आ रहें हैं और तुम्हारी कविता का पाठ भी तो है।
दीपक - हाँ मित्र !
आशीष (भोजन समाप्त करके) - चलो मेरा तो हो गया।
दीपक - हाँ मेरा भी।
दीपक व आशीष दोनों हाथ जोड़कर एक साथ स्तुति पढ़ते हैं- ’’पाया प्रसाद मन भया थीर। रक्षा करें सतगुरु रुप में सत्यकबीर।।’
(दोनो उठकर चले जाते हैं)
(दृश्य परिवर्तन)
दृश्य: 3
( सड़क का दृश्य है। सड़क पर एक मोटर साइकिल खड़ी है। दीपक व आशीष मोटर साइकिल के पास हैं। आशीष के हाथ में छाता है। दीपक मोटर साइकिल स्टार्ट (चालू) करने की काशिश करता है लेकिन वह स्टार्ट नहीं होती। वह कई बार प्रयास करता है।)
यह देखकर,
आशीष (दीपक से) - क्या हुआ मित्र !
दीपक - पता नहीं गाड़ी स्टार्ट नहीं हो रही।
(दीपक एक अन्तिम बार प्रयास करता है और फिर थककर झिड़ककर एक ओर खड़ा हो जाता है।)
दीपक - अब कोशिश बेकार है इसमें कोई खराबी आ गई है मित्र !
आशीष - लेकिन मित्र हमें तो प्रतियोागिता में पहुँचना है।
दीपक - अव प्रतियोगिता में पहुँचना वहुत मुश्किल है।
आशीष - इस मोटरसाइकिल को भी अभी खराब होना था।
दीपक - यह मेरा दुर्भाग्य है इसमें मोटर साइकिल का क्या दोष?
आशीष - मित्र निराश न हो ताँगे से चलें।
दीपक - लेकिन प्रतियोगिता सुभाष नगर में है जो यहाँ से आठ किलोमीटर दूर है और वहाँ पहुँचने के लिए हमारे पास लगभग बीस मिनट का समय है।
आशीष - एक युक्ति है।
दीपक - क्या?
आशीष - अगर मोटर साइकिल से नहीं तो साइकिल से चलते हैं।
दीपक - लेकिन मित्र आठ किलोमीटर लम्बा सफर और साइकिल से, मुझे तो साइकिल चलाना भी नहीं आता।
आशीष - जब तक जीवे मित्र तुम्हारा तुमको कौन पड़ी परवाह, मैं हूँ ना।
दीपक - लेकिन मित्र गर्मी वहुत है।
(आशीष साइकिल उठाता है)
आशीष (दीपक से) - मित्र विलम्ब न करो, शीघ्र वैठो। आओ ये लो छाता!
( आशीष छाता देता है किन्तु दीपक नहीं लेता)
दीपक - ये क्यूँ
आशीष - गर्मी बहुत है इसे लगाकर पीछे वैठ जाना। मैं तुम्हारे लिए ही लाया था।
दीपक - और तुम!
आशीष - तुम्हें मंच पर प्रस्तुत होना है, मेरा क्या है? वैठा रहूँगा कहीं भी।
दीपक - नहीं मित्र! मैं इतना स्वार्थी नहीं हो सकता कि तुम्हें धूप देकर खुद छाया में रहूँ।
आशीष - बहस न करो ! मैं तुमसे उम्र में बड़ा हूँ। तुम्हारा मित्र भी हूँ और बड़ा भाई भी। ये तुम्हारे बड़े भाई का आदेश है चलो पकड़ो इसे।
( आशीष दीपक को छाता थमा देता है। आशीष साइकिल पर बैठकर उसे चलाता है। दीपक पीछे बैठ जाता है। साइकिल चल पड़ती है। कुछ समय बाद -
दीपक ( आशीष से )- मित्र धूप तेज है। बहुत पसीना आ रहा है। कुछ देर विश्राम कर लो।
आशीष (साइकिल चलाते हुए) - नहीं मित्र! यदि विश्राम किया तो तुम्हें लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकूँगा। तुम मेरी चिन्ता मत करो
( आशीष साइकिल चलाता रहता है।)
(दृश्य परिवर्तन)
kashish
11-Mar-2023 02:20 PM
nice
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Barsha🖤👑
14-Oct-2022 10:16 PM
Beautiful
Reply
Nishant kumar saxena
15-Oct-2022 10:12 PM
Thnx plz read complete story
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Raziya bano
14-Oct-2022 08:24 PM
Bahut khub
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